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इब्राहिम अली जुनैद उनमें से एक थे. इन सभी मुस्लिम युवाओं के ख़िलाफ़ पुलिस ने फ़र्ज़ी मुक़दमे किए थे जिन्हें बाद में अदालत ने बाइज़्ज़त बरी कर दिया. इसके बाद सीबीआई ने स्वामी असीमानंद को 2010 में गिरफ़्तार किया और उनके बयान से ये स्पष्ट हुआ कि मक्का मस्जिद विस्फोट में हाथ किसका था.
राज्य सरकार ने जुनैद को मुआवज़े के तौर पर तीन लाख रुपए दिए और 'सॉरी' के अंदाज़ में एक 'कैरेक्टर सर्टिफ़िकेट' भी दिया. लेकिन इन युवाओं का तब तक काफ़ी नुक़सान हो चुका था.
किसी की शादी नहीं हो सकी, कोई नौकरी हासिल न कर सका और कोई पढ़ाई पूरी नहीं कर सका. सभी को किसी न किसी रूप में सामाजिक बहिष्कार का सामना करना पड़ा.
हैदराबाद के एक मुस्लिम इलाक़े में 'अल-शिफ़ा
क्लिनिक' चलाने वाले डॉक्टर इब्राहिम का कहना है कि सरकार से 'सर्टिफ़िकेट'
मिलने और स्वामी असीमानंद की गिरफ़्तारी के बावजूद भी स्थानीय पुलिस उन्हें
तंग करती है.
वो अपने नाम के आगे लगे 'टेरर टैग' को हटाने में विफल रहे हैं. उनके मुताबिक़, "आज भी अगर कोई बम धमाका या आतंकी हमला होता है तो पुलिस हमें तंग करती है."
डॉक्टर इब्राहिम की कहानी के कई दूसरे युवाओं की कहानी है. इन युवाओं को बम धमाकों के बाद पुलिस के उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है.
पुलिसिया कार्रवाई का स्वरुप एक जैसा है. इल्ज़ाम मिलते जुलते हैं और अंजाम एक ही है.
लेकिन एक उचित सवाल ये है कि पुलिस ने शहर के लाखों मुस्लिम लड़कों को छोड़कर इन्हीं युवाओं को फ़र्ज़ी मुक़दमे में क्यों फंसाया?
डॉक्टर इब्राहिम अली जुनैद से मैंने यही सवाल किया. उनका जवाब था, "असली मुजरिम अब पकड़े गए हैं लेकिन उस वक़्त स्थानीय पुलिस मुस्लिम बच्चों को धमाकों के केस में क्यों फंसाना चाहती थी, ये आज तक हमें समझ में नहीं आया."
वो कहते हैं कि पुलिस मुस्लिम विरोधी है,
सांप्रदायिक है. वो आगे कहते हैं, "देखिए पुलिस का दोहरापन. हमें गिरफ़्तार
करके मीडिया के सामने आतंकवादी कहा लेकिन अदालत में मुक़दमा आतंक के लिए
नहीं किया बल्कि सीडी वग़ैरह बांटने के इल्ज़ाम लगाए."
लेकिन ये भी अपनी जगह सही है कि डॉक्टर साहब जब डॉक्टरी की पढ़ाई कर रहे थे तो वो वक़्फ़ की ज़मीन पर कथित रूप से एक गणेश मूर्ति लगाए जाने के ख़िलाफ़ प्रदर्शन करने के दौरान पुलिस की नज़रों में आए थे. बाद में उन्हें गिरफ़्तार भी किया गया था.
लेकिन इस मुक़दमे से बरी हुए एक और मुस्लिम युवा सैयद इमरान ख़ान का मक्का मस्जिद बम धमाकों से पहले कोई पुलिस रिकॉर्ड नहीं था. इसके बावजूद उन्हें इस केस का मास्टरमाइंड कहा गया.
वो इस सवाल के जवाब में कहते हैं, "ये सवाल वाजिब है. पड़ोसियों को छोड़िए, हमारे रिश्तेदार भी हमें शक की निगाहों से देखने लगे. उनकी निगाहें कहती थीं कि कहीं सच में हम चरमपंथी तो नहीं. पुलिस मुसलमानों के ख़िलाफ़ है. ख़ैर, इतना है कि अदालत अब भी निष्पक्ष है, जिससे हमें इंसाफ़ की अब भी उम्मीद है."
सैयद इमरान ख़ान आगे कहते हैं, "पुलिस ये साबित करना चाहती थी कि में मुसलमान शामिल थे. पुलिस मुसलमान बच्चों
को नीचा दिखाना और हमारा भविष्य ख़राब करना चाहती थी. मैं बीटेक का छात्र था
लेकिन अब मुझे नौकरी कौन देगा?"
इमरान ख़ान कहते हैं कि उनके अंदर बदले की भावना नहीं है. वो बताते हैं, "मैं मुसलमान हूं. बदला लेना हमें नहीं सिखाया गया है."
डॉक्टर इब्राहिम कहते हैं कि अब वक़्त आगे देखने का है. वो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से अपील करते हैं कि वो मुस्लिम बच्चों को पुलिस की ज़्यादतियों से बचाएं. वो कांग्रेस की सरकार से परेशान थे. अब उन्हें मोदी सरकार से उम्मीद है कि उनके साथ इंसाफ़ होगा.
'मैं मुसलमान हूं, बदला लेना हमें नहीं सिखाया गया'
बुधवार, 11 जून, 2014 को 07:43 IST तक के समाचार
यूनानी दवाइयों के डॉक्टर
इब्राहिम अली जुनैद 29 वर्ष के हैं और पिछले छह सालों से अपने ऊपर लगी टेरर
टैग की 'बीमारी' का ख़ुद इलाज कर रहे हैं.
हैदराबाद की मक्का मस्जिद में 18 मई 2007 के दिन ज़ोरदार बम धमाके हुए थे, जिसके बाद 25 युवाओं को गिरफ़्तार किया गया था.इब्राहिम अली जुनैद उनमें से एक थे. इन सभी मुस्लिम युवाओं के ख़िलाफ़ पुलिस ने फ़र्ज़ी मुक़दमे किए थे जिन्हें बाद में अदालत ने बाइज़्ज़त बरी कर दिया. इसके बाद सीबीआई ने स्वामी असीमानंद को 2010 में गिरफ़्तार किया और उनके बयान से ये स्पष्ट हुआ कि मक्का मस्जिद विस्फोट में हाथ किसका था.
राज्य सरकार ने जुनैद को मुआवज़े के तौर पर तीन लाख रुपए दिए और 'सॉरी' के अंदाज़ में एक 'कैरेक्टर सर्टिफ़िकेट' भी दिया. लेकिन इन युवाओं का तब तक काफ़ी नुक़सान हो चुका था.
किसी की शादी नहीं हो सकी, कोई नौकरी हासिल न कर सका और कोई पढ़ाई पूरी नहीं कर सका. सभी को किसी न किसी रूप में सामाजिक बहिष्कार का सामना करना पड़ा.
'जारी है उत्पीड़न'
वो अपने नाम के आगे लगे 'टेरर टैग' को हटाने में विफल रहे हैं. उनके मुताबिक़, "आज भी अगर कोई बम धमाका या आतंकी हमला होता है तो पुलिस हमें तंग करती है."
डॉक्टर इब्राहिम की कहानी के कई दूसरे युवाओं की कहानी है. इन युवाओं को बम धमाकों के बाद पुलिस के उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है.
पुलिसिया कार्रवाई का स्वरुप एक जैसा है. इल्ज़ाम मिलते जुलते हैं और अंजाम एक ही है.
लेकिन एक उचित सवाल ये है कि पुलिस ने शहर के लाखों मुस्लिम लड़कों को छोड़कर इन्हीं युवाओं को फ़र्ज़ी मुक़दमे में क्यों फंसाया?
डॉक्टर इब्राहिम अली जुनैद से मैंने यही सवाल किया. उनका जवाब था, "असली मुजरिम अब पकड़े गए हैं लेकिन उस वक़्त स्थानीय पुलिस मुस्लिम बच्चों को धमाकों के केस में क्यों फंसाना चाहती थी, ये आज तक हमें समझ में नहीं आया."
दोहरापन
लेकिन ये भी अपनी जगह सही है कि डॉक्टर साहब जब डॉक्टरी की पढ़ाई कर रहे थे तो वो वक़्फ़ की ज़मीन पर कथित रूप से एक गणेश मूर्ति लगाए जाने के ख़िलाफ़ प्रदर्शन करने के दौरान पुलिस की नज़रों में आए थे. बाद में उन्हें गिरफ़्तार भी किया गया था.
लेकिन इस मुक़दमे से बरी हुए एक और मुस्लिम युवा सैयद इमरान ख़ान का मक्का मस्जिद बम धमाकों से पहले कोई पुलिस रिकॉर्ड नहीं था. इसके बावजूद उन्हें इस केस का मास्टरमाइंड कहा गया.
वो इस सवाल के जवाब में कहते हैं, "ये सवाल वाजिब है. पड़ोसियों को छोड़िए, हमारे रिश्तेदार भी हमें शक की निगाहों से देखने लगे. उनकी निगाहें कहती थीं कि कहीं सच में हम चरमपंथी तो नहीं. पुलिस मुसलमानों के ख़िलाफ़ है. ख़ैर, इतना है कि अदालत अब भी निष्पक्ष है, जिससे हमें इंसाफ़ की अब भी उम्मीद है."
बदले की भावना?
इमरान ख़ान कहते हैं कि उनके अंदर बदले की भावना नहीं है. वो बताते हैं, "मैं मुसलमान हूं. बदला लेना हमें नहीं सिखाया गया है."
डॉक्टर इब्राहिम कहते हैं कि अब वक़्त आगे देखने का है. वो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से अपील करते हैं कि वो मुस्लिम बच्चों को पुलिस की ज़्यादतियों से बचाएं. वो कांग्रेस की सरकार से परेशान थे. अब उन्हें मोदी सरकार से उम्मीद है कि उनके साथ इंसाफ़ होगा.
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