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Jasmine Bano tops Tamil Nadu SSC Board Exams

Chennai: A Muslim girl Jasmin Bano, daughter of Shaikh Dawood has created history and brought a pleasant surprise to all by securing 495 marks out of 500 in the 10th state Board examination for which 8,56,966 students from 6493 schools appeared in Tamil Nadu and Puducherry.
Jasmine studied at the Corporation Higher Secondary School in Thirunelveli.
She has secured centum in both Maths and Science, 98 marks in Tamil, 99 marks in English and 98 marks in Social Studies (History and Geography).
She wants to do Computer engineering, write the IAS exams and become a Collector to serve the people.
Another Muslim girl Ashraf Nisa, daughter of M.S. Deen is one of the three students who have achieved First Rank in the Corporation Schools by getting 487 marks out of 500 in the exam.
She has appealed to Chief Minister Tamil Nadu M. Karunanidhi to help her to pursue M.B.B.S. after finishing 12th as she is interested in becoming a doctor and serve the humanity.
Overall, girls have outshined boys in the entire state. Four girls have shared second rank while ten third rank.
Four girls with 493 marks are sharing second rank in the state while ten girls with 492 marks are at No 3. In total 9,67,420 candidates had appeared in the exam. The pass percentage of boys is 82.5 while that of girls is 85.5. T. Abdul Wahid Matriculation Higher Secondary School (MHSS), Ambur, has secured 100% results. All the Muslim management schools have also performed immensely well.

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"जंग" से कम नहीं नौकरी करना

अहमदाबाद। देश के राष्ट्रपति तथा लोकसभा अध्यक्ष जैसे उच्च पदों पर भले ही महिलाएं हों, लेकिन एक ताजा शोध के निष्कर्ष पर भरोसा करें, तो आज भी देश में पुरूष प्रधान मानसिकता अड्डा जमाए हुए है। इस शोध में पाया गया है कि स्वतंत्रता के 62 वर्ष बाद भी पढ़ा-लिखा तबका तक महिलाओं को यह अहसास दिलाना नहीं भूलता कि वो एक महिला है। यही वजह है कि सरकारी और निजी क्षेत्र में अच्छे पद पर नौकरी प्राप्त कर लेने के बावजूद महिला कर्मचारी के लिए नौकरी एक जंग के मोर्चे से कम नहीं होती। ऎसी जंग कि जहां परेशानियां कार्यालय से लेकर घर तक उसका पीछा नहीं छोड़ती और वो मनोवैज्ञानिक व स्वास्थ्य समस्याओं से घिर जाती हैं।यह शोध गुजरात विश्वविद्यालय के मनोविज्ञान भवन के अध्यक्ष डॉ. अश्विन जानसारी के मार्गदर्शन में विभाग के स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम (एम.ए. सायक्लॉजी) के विद्यार्थियों ने एक वर्ष के अध्ययन के दौरान किया है। इसके बारे में जानकारी देते हुए डॉ. जानसारी ने बताया कि शोध में बैंक कर्मचारी, शिक्षिका, नर्स, सरकार के विभिन्न विभागों में लिपिक के रूप में सेवारत 21 से 56 वर्ष (आयु वर्ग) की 306 महिला कर्मचारियों से लिखित में राय मांगी गई। इसमें से 215 विवाहित थीं और 81 अविवाहित। इनकी शिक्षा दसवीं से लेकर पीएचडी और एमफिल तक की थी। महिलाओं को दो आयु वर्गो में विभाजित किया गया, जिसमें एक वर्ष 21 से 30 और दूसरा 31 से 56 का रखा गया।व्यावसायिक महिलाओं की समस्याएं और निदान विषय पर लिखित में मांगे गए विचारों की शोध से पता चला कि 66 फीसदी महिला कर्मचारी अपने ऊपरी अधिकारियों के प्रताड़ना का शिकार होती हैं। इसमें 21 से 30 आयु वर्ग की 188 महिलाओं में से 80 फीसदी ने कहा कि ऊपरी अधिकारी उनके महिला होने का लाभ उठाते हुए परेशान करते हैं। 36 फीसदी का कहना था कि वे महिला हैं इसलिए उन्हें सहकर्मचारियों का उतना सहयोग नहीं मिलता जितना कि पुरूषों को मिलता हैं।21 से 34 आयु वर्ग की महिला कर्मचारियों में से 45 फीसदी का कहना था कि उन्हें शारीरिक शोषण, छेड़छाड़ का सामना करना पड़ा है। 39 फीसदी महिला कर्मचारियों का कहना था कि नौकरी लगने के बाद वे चाहते हुए भी आगे नहीं पढ़ पाती हैं। उनकी शिकायतों पर पर्याप्त कार्यवाही नहीं होने के चलते उन्हें निरंतर प्रताड़ना झेलनी पड़ती है।निजी कंपनी में सेवारत 21 से 30 वर्ष की 43 फीसदी महिलाओं ने कहा कि वे महिला हैं इसलिए उन्हें अपेक्षाकृत कम वेतन मिलता है, जबकि उनका पद और काम पुरूष सहकर्मी के बराबर होता है। 31 से 56 वर्ष की 27 फीसदी महिलाओं ने भी कम वेतन मिलने की बात कही। इतना ही नहीं 21 से 30 वर्ष की 48 फीसदी महिलाकर्मियों का कहना था कि उन्हें समय पर पदोन्नति और प्रोत्साहन नहीं मिलता है।51 फीसदी को मनोवैज्ञानिक समस्याकार्यालय और घर में पर्याप्त सहयोग नहीं मिलने के चलते नौकरी करने वाली 51 फीसदी महिलाएं किसी न किसी मनोवैज्ञानिक समस्या से पीडित पाई गई। मनोवैज्ञानिक समस्या से 21 से 30 आयु वर्ग की 63 फीसदी महिलाएं पीडित थीं, जबकि 31 से 56 वर्ष की महिलाओं में यह प्रतिशत 40 का था। 33 फीसदी महिलाकर्मियों का कहना था कि उन्हें भी सहकर्मचारियों की ओर से पर्याप्त सहयोग मिले तो वे भी अच्छा कार्य करने में सक्षम हैं। 49 फीसदी महिला कर्मचारियों का कहना था कि इनकी समस्याएं नहिवत हो जाएंगी यदि ऊपरी अधिकारी अच्छा व्यवहार करें। शारीरिक शोषण, छेड़छाड़ के मामले में 40 फीसदी महिला कर्मचारियों का कहना था कि उन्हें खुद ही शुरूआत में ही इसका कड़ा विरोध करना चाहिए, कानून, पुलिस कार्यवाही का भय दिखाना चाहिए।

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Goa chargesheet is a wake-up call

The chargesheeting of 11 members of the Sanatan Sanstha for last October’s Goa bomb blast case by the National Investigation Agency recently should serve as a warning that particular religions should not be associated with acts of terror. This requirement is all the more important in a society which is rather proud of its democratic political system and credentials. Initially the idea had seemed preposterous to many that those born in the Hindu faith in this country would resort to terrorism. There was no ideological, political, or analytical basis for such a cosy belief to arise. Perhaps what can be said in the light of experience is that because there was so much reporting from around the world of a great number of Islamic people leaning toward extremist ideological tendencies at the present moment in history, and a good number of these engaging in terrorism to secure their political aims in several countries, it generally became easy to accept that fingers could be pointed at Muslims alone for terrorist acts. Evidence to the contrary was dispensed with. Sri Lanka’s LTTE were a Tamil but also Hindu outfit. But their strike zone was mainly Sri Lanka and their actions didn’t trouble much of the rest of the world. In any case, the LTTE advertised itself in overtly political — not religious — terms, unlike the jihadi outfits which proudly professed political Islam. The so-called Christian terrorism on account of its appeal in the name of the Catholic faith, of which Northern Ireland used to be cited as an example, was on the wane with the political accord signalling the closure of that streak of militant politics. On the other hand, Pakistan has established itself over the past quarter century as the hotbed of international terrorism of the overtly jihadist variety. Given the history, this fuelled the belief that the archetypal terrorist had to be Muslim.The NIA’s probe into the Goa explosions leading up to the first judicial requirement of filing chargesheets should dispatch this notion for good. In any case, it is now established that it is Hindu far-right groups that conspired to arrange explosions at Malegaon in 2006, at the Macca Masjid in Hyderabad, and at the Ajmer sufi shrine subsequently. The attempt in these instances was to get Islamic outfits blamed to create an anti-Islamic spirit in society. Unlike what appears to be happening in Pakistan and certain other Muslim countries, it is not probable that Hindu groups in India professing extreme-right views leading up to terrorism can plausibly be looking to capture state power. If their aims can be said to be more modest, the tactical purpose that suits their enterprise is to discredit Muslims in India. This sits well with the general outlook of Hindutva-oriented groups in the country from the inception, the Hindu Mahasabha and the RSS being prime examples. Great socio-political upheavals represented by the destruction of the Babri Masjid in Ayodhya and the Gujarat pogrom should have alerted us to the possibility of right-wing religious-oriented Hindus adopting extreme postures to promote their cause. Looking back, however, it can be said that this strand was obscured in the haze of the constant anti-India terrorism emanating from Pakistan.Exposing the terrorist activities of extremist Hindu outfits goes to the credit of the Indian state and its instruments. There are no signs fortunately to suggest that the investigation is slack in cases where Hindu groups come under suspicion, or that the judiciary has been less than purposeful. This strengthens the society and the state in dealing with jihadist or any other variety of terrorism, whether the religious angle attaches to it or not.

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नफरत और न्याय

ऐसा क्यों है कि अजमल कसाब और अफजल गुरु की फांसी के मुद्दे पर बात शुरू होती है, तो घृणा की लपटों से पूर
ा माहौल घिर जाता है, कुछ इस तरह कि तर्क शक्ति और विवेक के ठहरने की गुंजाइश ही नहीं रह जाती? इन दोषियों से नफरत के इजहार के लिए लोग न्याय और नीतियों से परे जाने के लिए तैयार दिखते हैं। कोई इस बात के लिए शर्मसार महसूस करता है कि ये दोनों अब तक जीवित क्यों हैं? कोई इस बात के लिए उतावला है कि किसी तरह उसे ही दोनों को मारने का मौका मिल जाए। यह सब सोचने और कहने वाले अपराधी नहीं हैं। ये साधारण और मासूम लोग हैं, मेहनत करके रोजी-रोटी कमाने वाले पारिवारिक लोग, जो रोजमर्रा के जीवन में बेहद शांत रहते हैं। जो घर के सामने होने वाले छोटे-मोटे अन्याय को अनदेखा करते हैं और अपने साथ होने वाली ज्यादती को भी सहते हैं, उसका विरोध नहीं करते। ऐसे लोग भी कसाब और अफजल को लेकर बेहद आक्रामक रवैये का इजहार करते हैं, क्योंकि यह सबसे सुरक्षित किस्म की नफरत है। इसको व्यक्त करके वह किसी जोखिम में नहीं पड़ेंगे, बल्कि देशभक्त कहे जाएंगे। दरअसल इस नफरत में महंगाई को लेकर उनका असंतोष, भ्रष्ट नेताओं-अफसरों और शहर के अपराधियों को लेकर उनका गुस्सा शामिल है। जो असंतोष वह कहीं और न निकाल सके, अब इस रूप में निकाल रहे हैं, क्योंकि इसका उन्हें भरपूर मौका दिया जा रहा है। भीतर की आग भड़काई जा रही है। रोजमर्रा की समस्याओं से भन्नाया उनका दिमाग अफजल और कसाब को गालियां देकर थोड़ा शांत हो रहा है। इसलिए ठहर कर सोचने की जरूरत है कि कहीं कसाब और अफजल के बहाने हमें मूल समस्याओं से भटकाया तो नहीं जा रहा है। क्या इन दोनों के खत्म हो जाने से आतंकवाद से छुटकारा मिल जाएगा? अफजल और कसाब तो मोहरा भर हैं, आतंकवाद का नेटवर्क तो बहुत व्यापक है। इसके खिलाफ लड़ाई सूझबूझ से लड़ी जा सकती है, प्रतिहिंसा से नहीं। इस संघर्ष में सरकार, विपक्ष और हरेक नागरिक की भागीदारी अपेक्षित है। आज देश का एक तबका कसाब और अफजल के बहाने अपने सिस्टम पर ही सवाल उठा रहा है। अगर अपनी व्यवस्था के प्रति भरोसा ही नहीं बचा तो फिर बचेगा क्या। कसाब और अफजल को लेकर न्यायपालिका ने अपना फैसला सुना दिया है, अब उसे अमल में लाने की जवाबदेही कार्यपालिका की है। समाज को धैर्य रखना चाहिए।

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पाक में "फेसबुक" बैन

पाकिस्तान में सोशल नेटवर्किंग साइट फेसबुक को अस्थाई रूप से बंद कर दिया गया है। बुधवार को लाहौर हाइकोर्ट की ओर से इस साइट को बंद करने के आदेश सरकार को दिए गए थे। इस आदेश पर तत्काल अमल करते हुए पाकिस्तान टेलीकॉम अथॉरिटी ने सभी इंटरनेट ऑपरेटर्स को जल्द से जल्द फेसबुक बंद करने के फरमान जारी कर दिए।ज्ञातव्य है कि मोहम्मद साहब पर ऑनलाइन कार्टून प्रतियोगिता को रोकने से संबंघित जनहित याचिका के जवाब में बुधवार को हाईकोर्ट ने इस साइट को अस्थाई रूप से बंद किए जाने का आदेश सरकार को दिया था।फेसबुक पर इस तरह की प्रतियोगिता के खिलाफ लाहौर हाई कोर्ट में इस्लामिक लॉयर फोरम के अध्यक्ष अजहर सिद्धीकी ने जनहित याचिका दायर की थी। सिद्धीकी के अनुसार अदालत ने सरकार को निर्देश दिए है कि देश में 31 मई से पहले तक फेसबुक पर अस्थाई रूप से बैन लगाया जाए। सिद्धीकी के अनुसार कोर्ट ने विदेश मंत्रालय कोे भी इस बात का पता लगाने के लिए कहा है कि इस तरह के विवादास्पद कॉम्पिटिशन क्यों आयोजित किए जाते हैं।अदालत के हुक्म के बाद पाकिस्तान टेलिकॉम अथॉर्टी ने सभी इंटरनेट ऑपरेटरों से फेसबुक पर शीघ्र ही 31 मई तक बैन लगाने के आदेश जारी कर दिए हैं। इस कार्रवाई के बाद बुधवार दोपहर से ही पाकिस्तानी नेट यूजर्स के लिए फेसबुक उपलब्ध नहीं हो पाई। लेकिन कुछ यूजर्स स्मार्टफोन के जरिए फेसबुक को लॉग इन करने में कामयाब रहे। टेलिकॉम कंपनी नयाटेल के सीईओ वहाज-अस सिराज के मुताबिक पाकिस्तान में फेसबुक को चाहने वालों की तादात बड़ी संख्या में है। खासकर युवाओं में इस साइट को लेकर खासा क्रेज है। ऎसे में फेसबुक पर प्रतिबंध से पाकिस्तानी युवाओं में काफी रोष हो सकता है। सिराज ने कहा कि अदालत कार्टून प्रतियोगिता वाले खास यूआरएल एड्रेस को बंद करवा सकती थी लेकिन पूरी वेबसाइट पर बैन लगाना दुर्भाग्यपूर्ण है। गौरतलब है कि साल 2006 में भी डेनमार्क के कार्टूनिस्ट द्वारा मोहम्मद साहब का कार्टून जारी किए जाने पर खासा बवाल हुआ था।

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THE FATWA, JOB AND MUSLIM WOMEN ......... MOONISA BUSHRA ABEDI

When I was a student at The University of Mumbai; doing my M.Sc in Nuclear Physics, after a Seminar; I was asked by a press reporter, as to why the number of Muslim women is so less in jobs? Well, I could rather have questioned him when the number of Muslim men itself is pathetically low in jobs, where to regret for the women? Still I referred to “unhealthy job conditions” as the deterrent for our women. And he had not only agreed to it, but also expressing concern over it held up the need to improve them. Presently as we notice, much water has flown under the bridge and the job conditions have deteriorated further, whereas the number of women in jobs; including Muslims; are increasing. Besides, there seems to be a policy to promote women by the employers against men.
It was surprising that Fatwa pertaining to the job of Muslim women was misunderstood once again. It was condemned, distorted, misquoted and interpreted out of context. We, at the first place, forget that Fatwa is issued in response to a question asked by anyone who seeks religious guidance and never as per the whims and fancies of the Ulema. Further they are to be issued in the light of authentic knowledge of Islam, even mentioning the sources with due accountability. Still the impression being created by the media is; as if the Ulema are simply eager to issue fatwa in order to restrict people’s freedom and depriving them of their fundamental rights especially women. And this they do to espouse their dominance over the Muslim society, which is simply a despicable allegation.
It can hardly be denied that Islam doesn’t approve of free mixing of the two sexes. During the prophets time also, the women have participated in the public affairs of the society with Hijab dignity and chastity. Whereas; the atmosphere at the workplaces today hardly needs to be commented upon. Ulema from Deoband have further clarified that Fatwa had been issued on 6th of April 2010 in response to a question asked by a women; willing to know whether she can work in a public or private institution? The fatwa reads as “the working in public or private institutions where she has to mix freely with the men, talking freely and boldly to them without Hijab; is prohibited for women” In fact no sensible person would oppose this. It would be proper to mention yet another Fatwa of Deoband stating “if it is inevitable for a woman to work then she can do so with Hijab avoiding free mixing with men and talking frankly and boldly to them. Further her income can not be used, even by her relatives, without her permission.” This is again perfectly compatible with Islamic spirit .To our surprise the fatwa has been branded as Talibanisque by one of the leading English dailies; which is misguiding and dangerously provocative .Later the matter was blown out of proportion by the media, targeting Ulema for suppressing Muslim women. The whole propaganda seems to instigate Muslim masses against Ulema and project the so called Islamic scholars and activists as the true representative of Muslims, endorsing their social eminence and imposing their un-Islamic views on Muslim community through excessive boosting.
It was disappointing to see some such intellectuals defending the right to work for Muslim women by citing the examples of Razia Sultana or the women rulers of Pakistan, Bangladesh and Turkey. Each of them though Muslim; was practically far away from Islam and can hardly be considered as the role model for Muslim women. One can’t off course deny the appointment of women in the ministry of second Caliph of Islam Hazrat Umer (RA). Nor can one deny the participation of women in the important decision making meetings called upon by the Prophet (PBUH) in his mosque at Medina. But which of these examples can justify the unhealthy atmosphere, vulgar behavior, immodest dressings, jazzy make ups, bold attitude, obscene free mixing and the party culture which has become inseparable component of the public and private institutions where the women have to work. Had the first wife of Prophet Hazrat Khadija ever involved with men freely during her trade which she carried out in partner ship with them? Or was there any scope for immodesty in the battle led by Prophets youngest wife Hazrat Aisha? In fact none of the evidences from the Islamic history can be used to justify what women is found to be involved in most of the occupations except for those concerned with education , health and other such inevitable and noble professions.
There are people who claim that fatwa will not have any impact at all on the society in general and Muslim women are not going to leave their jobs. Surely no women has been forced to leave the job; nor is any forced to wear Hijab but the one who sought the guidance in the light of Islamic injunctions has been provided with it, through Fatwa .Some demand that Fatwa should be according to the requirements of the present times , perhaps they forget that Islam has the strength to modify the priorities of the time itself; and has the capacity to in to provide a favorable atmosphere; in order to safeguard the human interests and ensure healthy development of the human society. It hardly leaves any scope for interpretation of its basic principles as per the vested interests. The instructions for Hijab are based clearly on the Quranic verses and can not be distorted to suit ones choice and benefit.
It is amusing to note that women like Avisha Kulkarni, the convener of the so called Desh Bhakti Andolan; has not only condemned the Fatwa but has threatened to launch a nationwide movement against Hijab for Muslim women on jobs. Out of sheer prejudice, unmindfully enough, she has disregarded completely the plight of working women, ignoring the steep rise in the rate of crime against women; which is the highest at their workplaces. The observant Muslim women do realize the true spirit of fatwa and are hardly influenced by any false propaganda against it. They are of the opinion that; the Andolan is needed to be launched against the atrocities on women and their sexual exploitation in various professions. Further they wish o ask the self acclaimed sympathizers of women; why they deny us the right to dress up modestly and uphold our dignity and self esteem through Hijab. That is provided to us by Islam as the foremost precautionary measure against sexual crimes. Moreover what steps are being taken to prevent these crimes except legislation of laws; which are proven to be almost ineffective without the safety measures to be taken by the women for themselves.
It is the high time for the Muslim intellectuals to guide the community to establish separate institutions for women. In order to provide them with better prospects to utilize their abilities and work with dignity, self esteem and better security. We wonder why they don’t avail us with these kind of facilities while in countries like Saudi Arabia, the Gulf States and Iran Muslim women are running their separate educational institutions and the hospitals ; managed absolutely by women. They have special courts for the women with female judges and lawyers. Women are operating their own branches in banks and even stock exchanges. They also enjoy separate shopping malls, beaches, restricted for women, and other places of entertainment. Why can’t we think and plan on these lines, for the development of Muslim women. So that they may be provided with the full fledged opportunity to apply their talent and can set the example for others. Lest they may realize that mixing with men is not essential at all for the development and growth of women instead they can achieve these goals in healthier way without it.

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How TV failed to watch itself

ByArchna Shukla
Around two years ago, a senior executive from a TV audience research organisation told this writer that a leading broadcaster was seeking its help, to build influence in a certain market. This essentially meant installing audience measurement equipment (people meters) in houses identified by the broadcaster. Interestingly, this broadcaster was also a vociferous critic of the prevailing measurement system.
Whether the agency gave in to the broadcaster’s persistence is not known but the story sums up the pulls and pressures under which the television audience research business has been operating in India.
The government’s latest decision to constitute a committee to set up a transparent and effective TRP system in the country is a statement not on the efficacy of television viewership research agencies, but on the broadcast industry’s utter failure in resolving one of the many challenges confronting it.
For those who came in late, TRP, or television rating point, is the unit in which television viewership is measured. TRPs denote the percentage of viewers a programme or a channel gets during a particular time period.
It is strange that in the entire debate around television viewership measurement, fingers have only been pointed at the research agencies. Their TRPs have been held responsible for much of the malaise.
The general perception has been that in their blind chase for TRPs, television channels were churning out the kind of programming that will help them attract eyeballs, and in return, advertisers. News channels, which traditionally get lower viewership and hence, lower advertising, have been at the forefront of devising innovative ways of building healthy TRPs. The result has been programming that can hardly be described as responsible and tasteful. It was essentially the aggressive TRP-chase led by news channels that brought the debate of viewership measurement into public domain. Before this, TRP-bashing was essentially the industry’s internal time-pass.
... contd.

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Shah Faisal Ko Rollmodel Banane ki Zaroorat

यूसुफ किरमानी बीते शुक्रवार यानी जुमे को अखबारों में पहले पेज पर दो खबरें थीं, एक तो कसाब को
फांसी की सजा सुनाई जाने की और दूसरी सिविल सर्विस परीक्षा में ऑल इंडिया टॉपर शाह फैसल की। आप इसे इस तरह भी देख सकते हैं कि एक तरफ मुसलमान का पाकिस्तानी चेहरा है तो दूसरी तरफ भारतीय चेहरा। हर जुमे की नमाज में मस्जिदों में खुतबा पढ़ा जाता है जिसमें तमाम मजहबी बातों के अलावा अगर मौलवी-मौलाना चाहते हैं तो मौजूदा हालात पर भी रोशनी डालते हैं। अक्सर अमेरिका की निंदा के स्वर इन खुतबों से सुनाई देते हैं। उम्मीद थी कि इस बार जुमे को किसी न किसी बड़ी मस्जिद से आम मुसलमान के इन दो चेहरों की तुलना कोई मौलवी या मौलाना करेगा, लेकिन मुस्लिम उलेमा यह मौका खो बैठे। जिक्र का हकदार देश की आजादी के बाद यह चौथा ऐसा मौका है जब किसी मुस्लिम युवक ने आईएएस परीक्षा में बड़ी सफलता पाई है। जिसके पिता का आतंकवादियों ने कत्ल कर दिया हो, जिसने एमबीबीएस परीक्षा भी पास कर ली हो और जिसकी शिक्षक मां ने उसे रास्ता दिखाया, वह जुमे के खुतबे में या तकरीर में कम से कम उल्लेख किए जाने का हकदार तो है ही। लेकिन कुछ और वजहों से भी शाह फैसल का उल्लेख मस्जिदों और मदरसों से लेकर गली-कूचों तक में किया जाना जरूरी हो गया है। शाह फैसल की सफलता ने भारतीय मुसलमानों की उस युवा पीढ़ी में एक उम्मीद जगा दी है, जो फतवों से ऊपर उठकर कुछ करना चाहती है, जो अपने मजहब और देश के कल्चर में रहकर ही कुछ पाने की तमन्ना रखती है।
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सिलिकॉन इम्प्लांट पर न बजे बम की घंटी
और स्टोरीज़ पढ़ने के लिए यहां क्लिक करेंइस बात पर जब-तब बहस होती रही है कि भारतीय मुस्लिम युवक शिक्षा के नजरिए से बाकी समुदायों के मुकाबले बहुत पिछड़े हुए हैं। नैशनल सैंपल सर्वे के आंकड़े के मुताबिक मुसलमानों की कुल आबादी में कॉलेज ग्रैजुएट सिर्फ 3.6 फीसदी हैं। सिविल सेवा परीक्षा के लिए न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता ग्रैजुएट है। मुसलमानों में शैक्षणिक पिछड़ेपन की बहस को अंत में सरकार की नीतियों और रिजवेर्शन पर ले जाकर खत्म कर दिया जाता है। राजेंद्र सच्चर कमिटी की रिपोर्ट आने के बाद से इस बहस को और भी मजबूती मिली है। फैसल बने रोल मॉडल लेकिन, बात जुमे पर पढ़े जाने वाले खुतबे से शुरू हुई थी। सरकार जब कुछ करेगी, तब करेगी। नमाज पढ़ाने वाले इमाम या मौलवी जुमे पर जुटने वाली भीड़ से क्या कभी यह कहते हैं कि हमें ज्यादा मुस्लिम युवकों को आईएएस-आईपीएस बनाने के लिए या आईआईएम तक पहुंचाने के लिए स्टडी सेंटर चाहिए? कितने ऐसे उलेमा या मौलाना हैं जो अपने समुदाय के लोगों से यह अपील करते नजर आते हैं कि हमें भी बिहार और झारखंड के सुपर 30 मॉडल को अपनाकर अपने बच्चों को आईआईटी तक पहुंचाने का रास्ता बनाना चाहिए? जिस अजमेर शरीफ दरगाह को भारत ही नहीं, पूरी दुनिया के मुसलमान एक पवित्र स्थान के रूप में जानते हैं, क्या वहां की कमिटी ने कभी कोई यूनिवर्सिटी या प्रफेशनल कॉलेज खोलने की पहल की? राजधानी दिल्ली की बात करें तो यहां हजरत निजामुद्दीन औलिया की दरगाह में अजमेर के मुकाबले कम चढ़ावा नहीं आता, लेकिन उस पैसे का इस्तेमाल क्या देश में कई और शाह फैसल पैदा करने में खर्च नहीं किया जा सकता? आप मस्जिद और मदरसे के लिए चंदा मांग सकते हैं तो इस नेक काम के लिए परहेज क्यों? जिस अजमेर शरीफ दरगाह को भारत ही नहीं, पूरी दुनिया के मुसलमान एक पवित्र स्थान के रूप में जानते हैं, क्या वहां की कमिटी ने कभी कोई यूनिवसिर्टी या प्रफेशनल कॉलेज खोलने की पहल की? राजधानी दिल्ली की बात करें तो यहां हजरत निजामुद्दीन औलिया की दरगाह में अजमेर के मुकाबले कम चढ़ावा नहीं आता, लेकिन उस पैसे का इस्तेमाल क्या देश में कई और शाह फैसल पैदा करने में खर्च नहीं किया जा सकता? अकेले अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवसिर्टी (एएमयू) और जामिया हमदर्द डीम्ड यूनिवर्सिटी में स्टडी सर्कल चलाकर आप बड़ी तादाद में आईएएस, आईपीएस या आईआईटियन पैदा नहीं कर सकते? क्या अनंतनाग या सीवान का हर युवक शाह फैसल की तरह दिल्ली आकर हमदर्द स्टडी सर्कल में सिविल सविर्सेज की तैयारी कर सकेगा? अगर शाह फैसल को रोल मॉडल बनाकर आप इसे एक आंदोलन का रूप दे दें तो यह मुमकिन है। शाह फैसल ने आपको एक मौका दे दिया है। तिरुपति देवस्थानम द्वारा संचालित शिक्षण संस्थाएं वेल्लूर से लेकर दिल्ली तक फैली हुई हैं और इनमें प्राइमरी स्कूल से लेकर डिग्री कॉलेज तक हैं। इनकी संस्थाओं में गरीब बच्चे पढ़कर आईएएस और आईआईटी की मंजिल तय करते हैं। अम्मा के नाम से विख्यात मां अमृतानंदमयी तो अब उत्तर भारतीय लोगों में भी उतनी ही प्रसिद्ध हो गई हैं जितनी दक्षिण भारत में। आज वह अपने प्रवचन से ज्यादा स्कूल-कॉलेज और यूनिवर्सिटी खोलने के लिए जानी जा रही हैं। कर्नाटक में गुलबर्गा शरीफ दरगाह में आने वाले चढ़ावे और दूसरी आमदनियों से वहां की कमिटी कई सफल वोकेशनल कॉलेज चला रही है। शिया धर्म गुरु मौलाना कल्बे सादिक ने अलीगढ़ में एकदम एएमयू की तर्ज पर एक ऐसा शिक्षण संस्थान खड़ा किया है, जहां कई रोजगारपरक विषयों की पढ़ाई हो रही है। पर, शिक्षा के क्षेत्र में काम को ईसाई मिशनरियों की तरह जितनी गंभीरता से लिया जाना चाहिए था, मुस्लिम समुदाय ने इसे उस रूप में नहीं लिया। एक रुपये से तब्दीली मुमकिन दिल्ली की सबसे बड़ी शाही जामा मस्जिद में हर जुमे को नमाज पढ़ने वाला मुसलमान अगर एक रुपया भी इस काम के लिए दे तो आप कुछ साल में एक अच्छा प्रफेशनल शिक्षण संस्थान खड़ा कर सकते हैं। पैगंबर हजरत मोहम्मद साहब तो धर्म के अलावा इल्म की बात भी बताकर गए थे, पर कितने लोग हैं जो इल्म की अलख जगाने के लिए मौजूदा हालात में सामने आए हैं। यहां पर उन लोगों का जिक्र बेमानी होगा जिन्होंने एमपी-एमएलए बनने के बाद निजी हितों के लिए शिक्षण संस्थाएं खोलीं। ये वे लोग हैं जो प्रधानमंत्री रोजगार योजना और अल्पसंख्यक कल्याण निगमों से कर्ज दिलाने की बात कर आपको हमेशा दस्तकार बनाए रखना चाहते हैं। ऐसे लोग नहीं चाहते कि फिरोजाबाद में कांच की भट्ठी में तपने वाला मुस्लिम युवक आईएएस बनने का सपना भी देखे। वे लोग लखनऊ के चिकन कपड़ों का एक्सपोर्ट लाइसेंस तो खुद हासिल करेंगे लेकिन अपने समुदाय के लड़के-लड़कियों से चाहेंगे कि वे सारी जिंदगी उन कपड़ों पर चिकन की कढ़ाई करते रहें!

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Minor Bengali Girl Sold In Rajasthan


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انسداد فرقہ وارانہ تشدد، ضبط اوربازآبادکاری ء متأثرین بل2005 پرامور داخلہ پر
پارلیمانی اسٹینڈنگ کمیٹی رپورٹ پر تقریظ(تنقیدی مضمون) سینیئر ایڈوکیٹ یوسف حاتم مچھالہ نے تیار کیاہے۔
13دسمبر 2006 کوامور داخلہ پرمحکمہ جاتی پارلیمانی اسٹینڈنگ کمیٹی رپورٹ (122ویں رپورٹ) راجیہ سبھا اور لوک سبھا میں پیش کی گئی۔ رپورٹ کوبہرصورت عوام کے سامنے پیش کی جانی چاہئے اور اسےمتمدن سماج کے اراکین کی‘ذاتی آزادی’ کومتأثر کرنے والےمختلف اہم کلیدی مسائل پرمباحثہ ومذاکرہ کا مکلف بنایاجاناچاہئے نیزمختلف مذہبی،لسانیاتی اور نسلی جماعتوں کے مابین سماجی ہم آہنگی ویکجہتی کی حفاظت اوراِن سب سے پرے فرقہ وارانہ تشدد کی روک تھام میں حکومت اور ساتھ ہی ساتھ غیر حکومتی عوامل کی ذمہ داری و جوابدہی پر بحث ہونی چاہئے اور ان معاملات میں جہاں قصوروار کو سزا دینے کے لئے احتیاطی اقدامات کے باوجود فرقہ وارانہ تشدد رونماہوتاہے حکومتی عوامل کی فرقہ وارانہ تشدد کو روکنے میں ناکامی پر جوابدہی اور فرقہ وارانہ تشدد کو قابو میں کرنے یا روکنے میں ان کے کردارکی جانچ پر مفصل بحث ہونی چاہئے ۔
فرقہ وارانہ تشدد( انسداد،انضباط اور متأثرین کی بازآبادکاری) بل 2005 (اختصار کےساتھ ا سے سی وی پی بل 2005 کہا جاتا ہے) اسٹینڈنگ کمیٹی کے حوالے کرنے سے قبل اس کی شِقوں کو عوامی مباحثہ سے مشروط کیا گیا تھا۔ اس بل کا مقصد مذہبی اقلیتوں بالخصوص مسلمانوں کے اندر اعتمادجاگزیں کرنا اور ان کے خلاف تشد دکا خوف ہٹانا تھا۔عوامی مباحثہ کے دوران متعدد تنظیموں نے سی وی پی بل 2005 میں متنوع خامیوں کی طرف اشارہ کیا اور مندرجہ ذیل مختلف نکات پر اپنی شدید تشاویش کا اظہارکیا جنہیں یا تو نظراندازکیاگیا یا حکومت اور اسٹینڈنگ کمیٹی نے مناسب طور سے مخاطب نہیں کیا۔
ایکٹ کا نفاذ
دفعہ1 ذیلی دفعہ4
مرکز کے زیرانتظام علاقوں میں اس ایکٹ کےنفاذ کا اختیارمرکزی حکومت کے پاس ہے او مرکزی حکومت سرکاری گزٹ میں نوٹیفیکیشن کے ذریعہ ایکٹ کے نفاذ کی تاریخ کا اعلان کرکے اسے کبھی بھی نافذ کرسکتی ہے لیکن جہاں تک ریاستوں کی بات ہے تو اسکے نفاذ کی اسکیم کچھ اس طرح ہے کہ صرف راحت اور بازآبادکاری سے متعلق شِقوں( فرقہ وارانہ تشدد کے انسداد اورامتناع کی شقوں کو خارج کردیاگیاہے)کو مرکزی حکوت سرکاری گزٹ میں نوٹیفیکیشن کے ذریعہ تواریخ کا علان کرکے اسے نافذ کرسکتی ہے اور مختلف دفعات کے نفاذکےلئے مختلف تاریخ مخصوص کی جاسکتی ہے۔
جہاں تک فرقہ وارانہ تشدد کے انسداداورامتناع کی بات ہے تو یہ ریاستی حکومت کے ذمہ کردیاگیاہے کہ وہ جب چاہے سرکاری گزٹ میں نوٹیفیکیشن کے ذریعہ ان دفعات کے نفاذکی تاریخ متعین کرکے نافذکرسکتی ہے۔
لہٰذا پارلیمنٹ کے ذریعہ ایکٹ منظورہونے پر کوئی بھی دفعہ نافذ نہیں ہوگی کیونکہ اس کی تنفیذ کا اطلاق مرکزی حکومت / ریاستی حکومتوں کی شیریں خواہشات پر منحصرہوگا۔ عوام ایک موثر قانون کافوری نفاذ کےساتھ مطالبہ کر رہے ہیں نہ کہ قانون مسطور کوایک اور قانون سے مزین کیا جائے۔ کسی بھی ملک میں اس وقت تک اچھی حکمرانی نہیں ہو سکتی جب تک کہ اس کی کل آبادی کے تمام طبقات مامون ومحفوظ نہ محسوس کریں۔ لہٰذا چونکہ یوپی اے حکومت نے اچھی حکمرانی کا وعدہ کیاہے اس لئے یہ اس کا فرض ہے کہ وہ ایک موثر قانون وضع کرے اور اسے فوراً نافذ کرے جو فرقہ وارانہ تشدد کو روکے گا۔( ایکٹ کی شِقوں کی تنفیذ کی یہ پوری اسکیم سیاسی عزم کی کمی کی عکاسی کرتی ہے)۔
دوسری بات یہ ہے کہ یہ سمجھ میں نہیں آرہاہے کہ فرقہ وارانہ تشدد کے انسداد اور امتناع سے متعلق دفعات کی تنفیذ ریاستی حکومتوں کی مرضی پر کیوں چھوڑدیاگیاہے۔ یہ خیال کیاجاتاہے کہ مرکزی حکومت نے سی وی پی بل 2005 کی دفعات پر ریاستی حکومتوں سے جواب مانگاہوگا۔ عوام کو یہ جاننے کا حق ہے کہ کس ریاست نے ایکٹ کو فوراً نافذ کرنے کی خواہش ظاہر کی تھی اور کس ریاست نے مخالفانہ طرزعمل اختیار کیاتھا۔ لہٰذا مرکزی حکومت کے لئے عوام کو یہ مطلع کرنا ضروری ہے کہ کونسی ریاستیں مذکورہ ایکٹ کو فوری اثر کے ساتھ نافذ کرنا چاہتی ہیں اور کونسی ریاستیں نہیں چاہتی ہیں۔ سی وی پی بل 2005 اپنےصحیح نفاذ کے بغیر محض ایک پریشان کن فریب اور ایک غیر حقیقی وعدہ ہے۔ یہ بنا دانتوں والا شیر ہے جو دہاڑ بھی نہیں سکتا۔
اسٹینڈنگ کمیٹی کا ردعمل
اسٹینڈنگ کمیٹی کی رپورٹ ظاہرکرتی ہے کہ اس نے اس بنیادی مسئلے پر غور تک بھی نہیں کیاہے۔ یہ انتہائی افسوسناک معاملہ ہے۔ یوپی اے حکومت کو سی وی پی بل 2005 میں اصلاح متعارف کرانا اور اسے فورا قابل نفاذ بنانا چاہئے۔
مجوزہ قانون کے طریق کار کا معائنہ کرنے پر پتہ چلتاہے کہ ایکٹ کی فرقہ وارانہ تشدد کے انسداداور امتناع سے متعلق دفعات اس وقت نافذالعمل ہوں گی اگر متعلقہ ریاست یا مرکزی حکومت کسی بھی ریاست میں مخصوص علاقے کو ‘‘شورش زدہ علاقہ’’ اعلان کرے۔ یہ پوری تجویز اور طریق کار مندرجہ ذیل خامیوں کا دروازہ کھول رہے ہیں جس پر اسٹینڈگ کمیٹی نے اپنی رپورٹ میں کچھ بھی خامہ فرسائی نہیں کی ہے۔
(الف) کسی بھی علاقے کو ‘شورش زدہ ’ قرار دینے کے لئے سی وی پی بل 2005 میں جو شرائط درج کی گئی ہیں اس سے توقع کے برعکس منفی نتائج برآمد ہوں گے لہٰذا وہ غیر ضروری ہیں۔اعتراض کی وضاحت کرتے ہوئے سی وی پی بل 2005 کا خاکہ یہ فراہم کرتا ہے کہ کسی علاقے میں شیڈول (جدول)میں صراحت کردہ جرائم( بل میں قتل شامل ہے لیکن رپورٹ میں دیگر سنگین جرائم مثلاً عصمت دری اورڈاکہ زنی کو شامل کرنے کی سفارش کی گئی ہے) پیش آتے ہیں تو اس وقت یہ اعلان کیا جا سکتا ہے کہ فلاں علاقہ شورش زدہ ہے۔ لیکن اس بات کی کوئی وضاحت نہیں پیش کی گئی ہے کہ لاء اینڈ آرڈر کو اس حد تک کیوں خراب ہونے دیاجائے کہ جہاں شیڈول جرائم کا ارتکاب ہو اور اصول جوابدہی کیوں نہیں متعارف کرائے گئے جس کےمطابق اس پولس اسٹیشن کے انچارج افسر کو جس کے ماتحت آنے والے علاقے میں اس طرح کے مذکورہ جرائم کئے جاتے ہیں جوابدہ ہوناچاہئے ۔مشورہ یہ ہے کہ جب بھی کسی پولس اسٹیشن کے ماتحت آنے والے علاقے میں نظم و نسق منظم طور سے تباہ ہوتاہے تو متعلقہ پولس افسر کو کمان سنبھالنے کی ذمہ داری کے اصول کے تحت جوابدہ بنایاجانا چاہئے۔ بدقسمتی سے معاملے کے اِس کلیدی پہلوپر اسٹینڈنگ کمیٹی پر کوئی بحث نہیں ہوئی ہے۔
(ب) سی وی پی بل 2005 میں ایسی کوئی شق نہیں ہے جس کے تحت سرکاری عوامل کوبغض و بدنیتی سے یا کسی اور خارجی مقصد سےایک مخصوص علاقہ کو ‘‘شورش زدہ علاقہ’’ قرار دینے اور اس کے بعد سی وی پی بل 2005 کے باب سوم(دفعات 7تا 23) کی شقوں کو اس ‘‘ شورش زدہ علاقہ’’ کی آبادی کے خلاف آمرانہ،من موجی اور بے اصولی انداز میں استعمال کرنے پر جوابدہ بنا جا سکے۔
(ج) اس کے برعکس سی وی پی بل 2005 میں ایسی کوئی شق نہیں ہے جس کے تحت کسی علاقے کو‘‘شورش زدہ علاقہ ’’ قرار دینے کے لئے زمینی حقائق، اسباب، حالات موجود ہونے کے باوجود اس مخصوص علاقے کو شورش زدہ قرار نہ دینے پر سرکاری عوامل کو جوابدہ بنایاجاسکے۔
اسٹینڈنگ کمیٹی کا رد عمل مندرجہ بالا قلم بند کی گئی تجاویز کو نظرانداز کردیا گیا ہے۔
جہاں تک پولس، عسکری/نیم عسکری طاقتوں کے ذریعہ فرقہ وارانہ فسادات کو روکنے یا قابو میں کرنے کے لئے طاقت کے استعمال کی بات ہے تو ماضی کے تجربات شاہد ہیں کہ حُکَّام نے ہمیشہ اس طرح کے اختیارات کا استعمال مذہبی اقلیتوں اور حاشیہ پر کھڑے سماج کے دیگر طبقات مثلاً دلتوں کے خلاف کیا۔ بل میں اس طرح کی کوئی معقول شِق نہیں ہے جس کے تحت پولس/فوج/نیم فوجی طاقتوں کو مذہبی اقلیتوں اور حاشیہ پر کھڑے سماج کے دیگر طبقات مثلاً دلتوں کے خلاف طاقت کابے ایمانی سے، حد سے زیادہ، جانبدارانہ اور متعصبانہ استعمال کرنے پر جوابدہ بنایاجاسکے۔ اس طرح انسانی حقوق کی خلاف ورزی کو صریح اور مکمل طورپرنظراندازکیاگیا۔اگر اس طرح کے اختیارات معاندانہ طورپر اقلیتوں کی اکثریت والے علاقوں میں استعمال کئے گئے اور اُن علاقوں پر دہشت کی حکمرانی مسلط کردی گئی تو؟ اِس کے لئے بھی کوئی جوابدہی نہیں۔
اسٹینڈنگ کمیٹی کا رد عمل مندرجہ بالا قلم بند کی گئی تجاویز کو نظرانداز کردیا گیا ہے۔
سی وی پی بل 2005کے باب سوم اور شِق نمبر5کے تحت ضلع مجسٹریٹ کو یہ اختیارات دیئے گئے ہیں کہ جب اسے نقض امن اور مختلف مذہبی گروہوں کے اراکین کے درمیان نزاع پیداہونے کا خطرہ ہو تو وہ احتیاطی اقدامات کرسکتاہے۔ اسے یہ اختیاردیاگیا ہے کہ وہ تحریری حکمنامہ کے ذریعہ کسی بھی ایسے عمل کو روک سکتاہے جو اس کے خیال میں دوسری کمیونٹی،جات یا گروہ کے ذہن میں تشویش کا باعث ہوسکتاہے یا کسی ایسے کام کو جس کا مقصدکمیونٹی،جات یا گروہ کو ڈرانا دھمکانا یاان کے خلاف بغض و عناد پھیلانا ہو وہ حفظ ماتقدم کے طورپر روک سکتاہے۔ ضلع مجسٹریٹ کو مندرجہ بالا شِق کے تحت جو اختیارات دیئے گئے ہیں اگر ان کا معقول استعمال کیاجاتاہے تو ممکن ہےکہ کسی علاقے میں فرقہ وارانہ تناؤ کو جوعموماً آگے چل کر فرقہ وارانہ فسادمیں تبدیل ہوجاتاہے ختم کرنے میں موثر ثابت ہوسکے۔ لیکن اس طرح کے فرمان کی پیروی نہ کرنے یا حکم عدولی کرنے کے نتائج کےلئےبِل میں کوئی شق نہیں ہے۔اس خامی کا ازالہ کیاجانا چاہئے۔
اسٹینڈنگ کمیٹی کا ردعمل رپورٹ میں مندرجہ بالا خلا کو نظراندازکیاگیاہے۔
دفعہ 7 افسر مجاز کو یہ اختیار دیتی ہے کہ وہ فرقہ وارانہ طور پر شورش زدہ علاقہ میں کسی بھی شخص،افراد کے گروہ یا تمام افراد کو فوراً اپنے تمام اسلحے،گولہ بارود،دھماکہ خیز اشیاء اورگلا دینے والے مادے قریبی پولس اسٹیشن میں جمع کرنے کا حکم دے سکے۔ تاہم اس دفعہ میں ایک فقرہ شرطیہ(شِق)کا اضافہ کیا گیا ہے جس کے تحت افسرمجاز کسی فرد یا افراد کے گروہ کو اس طرح کے حکم پر عمل کرنے سے مستثنیٰ کرسکتاہے۔ اِس شِق کا اثر، جو افسر مجاز کو بے قاعدہ اور بے لگام اختیار دیتی ہے کہ وہ کسی ‘‘فرد’’ یا ‘‘ افرادکےگروہ’’ کواِس طرح کے حکم پر عمل کرنے سے مستثنیٰ کرسکتاہے، دفعہ کےکلیدی شِق کےاثر کو زائل کردے گا۔سی وی پی بل 2005 میں افسرمجاز کو کوئی رہنماخطوط مہیانہیں کئے گئے ہیں کہ کب اسے کسی فرد یا افراد کے گروہ کو حکم کی تعمیل سے مستثنیٰ قرار دینا چاہئے۔
اسٹینڈنگ کمیٹی کا ردعمل رپورٹ کے پیرا5.6.2 کے مطابق داخلہ سکریٹری کا جواب اطمینان بخش نہیں ہے۔ طاقت استعمال کرنے سے متعلق راہنما ہدایات قانون مسطور میں ہونا چاہئے۔
سی وی پی بل 2005 کی دفعہ 10فرقہ وارانہ طور پر شورش زدہ علاقہ میں افسر مجاز کو یہ اختیار دیتی ہے کہ وہ فرقہ وارانہ طور پر شورش زدہ علاقہ میں
افردا کے طرز عمل سے متعلق احکامات جاری کرسکے۔ اس شِق کو بھی منتخب طور سے مذہبی اقلیتوں اور حاشیہ پر لاکھڑ کردیئے گئے افراد مثلاً دلتوں کے مفاد کے خلاف استعمال کیا جاسکتاہے۔
اسٹینڈنگ کمیٹی کا ردعمل رپورٹ ظاہر کرتی ہے کہ سی وی پی بل 2005 کی دفعہ 10 کواسٹینڈنگ کمیٹی نے نظراندازکیاہے۔
سی وی پی بل 2005 کی دفعہ11 فرقہ وارانہ طور پر شورش زدہ علاقہ کے اندر یا اس کے قُرب میں آوارہ گردی سے روکتی ہے۔ ایک پولس افسر یا وہ شخص جسے(اس میں کانسٹیبل بھی شامل ہوسکتاہے) افسر مجاز نے قانونی اختیار دیاہے کسی بھی آدمی کو علاقہ چھوڑنےکے لئے کہہ سکتاہے۔ جو بھی مذکورہ دفعہ کی اِ س شِق کی بغیر جائز اورموزوں سبب کے مخالفت کرتاہے وہ جرمانہ کے ساتھ ایک سال کی سزا یا دونوں کا سزاوارہوگا۔ فرقہ وارانہ طور پر شورش زدہ علاقہ میں کام کرنے والے حقیقی سماجی کارکنان کے خلاف اِن دفعات میں سے چندمنتخب شدہ شِقوں کااستعمال کیاجاسکتاہے۔ اس شِق کو مذہبی اقلیتوں اورحاشیہ پر کھڑے طبقات کے افراد مثلاً دلتوں کے خلاف بھی کیا جاسکتاہے۔
اسٹینڈنگ کمیٹی کاردعمل رپورٹ میں سی وی پی بل 2005 کی شق 11 کےتعلق سے پیش کی گئی تجاویز پر کوئی تأثر نہیں ظاہرکیاگیاہے۔
سی وی پی بل 2005 کی شق نمبر13 اور14 میں مجرم کی مدد کرنے والے کو سزادینے کی بات کہی گئی ہے۔فسادمتأثرین کو مالی مدد پہونچانے سے روکنے کے لئےمذہبی اقلیتوں اور حاشیہ پر کھڑا کردیئے گئے سماج کے دیگر طبقات کے افراد مثلاً دلتوں کے خلاف اس شِق کو استعمال کیاجاسکتاہے۔
اسٹینڈنگ کمیٹی کا ردعمل مذہبی اقلیتوں اور حاشیہ پر لاکھڑاکردیئے گئے سماج کے دیگر طبقات کے اندیشوں پر اسٹینڈنگ کمیٹی نے کوئی رد عمل ظاہرنہیں کیاہے۔
سی وی پی بل 2005 کی شق نمبر17 بہت اہم ہے جس کے تحت سرکاری افسر جرمانہ کے ساتھ تین سال کی سزا یا دونوں ہوسکتی ہے جو قانون کے تحت عطاکئے گئے قانونی اختیار کا بدنیتی سے استعمال کرتاہے یا قصداً اپنے اس اختیارکاا ستعمال نہیں کرتا ہے اور بالآخر فرقہ وارانہ تشدد کو رونماہونے سے روکنے میں ناکام ہوجاتاہے ۔ تاہم کوئی بھی عدالت ریاستی حکومت سے پیشگی اجازت لئے بغیراس دفعہ کے تحت معاملہ کی سماعت نہیں کرسکتی۔ ریاستی حکومت کے لئے ضروری ہے کہ وہ حصول اجازت کے لئے ہر درخواست پردرخواست کی تاریخ سے لے کر اگلے30 دن کے اندرفیصلہ صادرکرے۔
ریاستی حکومت سے اجازت حاصل کرنے کا یہ عمل بالکل غیر ضروری ہے اورسچ بات تو یہ ہے کہ اس سے شق نمبر21 کی اصل ذیلی شق کا اثر باطل ہوجائے گا۔ تجربہ نے یہ دکھایا ہے کہ ریاست حکومتیں سرکاری افسران کے خلاف اس طرح کی قانونی چارہ جوئی کے لئے اجازت دینے میں کراہت سے کام لیتی ہیں۔ اگر ریاستی حکومت اجازت دینے سے انکارکردیتی ہے تو پھر غمزدہ افرادکے پاس فرض سے کوتاہی برتنے کے جرم میں سرکاری افسر کے خلاف قانونی کارروائی کرنےکا کوئی اور راستہ نہیں بچتاہے۔ لہٰذا قصداً اپنے فرض سے کوتاہی برتنے والے یااپنے اختیارات کا ناجائز استعمال کرنے والےایک خاطی سرکاری افسرکاقانونی علاج ایک وہم ہے۔
مزید برآں اس حقیقت کے باوجود کہ ایک علاقہ کو فرقہ وارانہ طور پرشورش زدہ قرار دینے کے لئےمبنی بر حقیقت جواز موجودتھا لیکن اس کے باوجود ریاستی یا مرکزی حکومت نے اسے شورش زدہ قرارنہیں دیا ایسی صورت میں ریاستی یا مرکزی حکومت کے خلاف فسادمتأثرین کے لئے کیا علاج ہے؟ اس طرح کے معاملے میں ایکٹ کی اہم شِقیں غیر موثر ہوجائیں گی۔ اس لئے جب تک مرکزی حکومت یا ریاستی حکومتیں اپنی نااہلی کے لئے جوابدہ/ قابل باز پرس نہیں بنایاجائے گا بے دانت قانون کو نافذ کرنے کی ساری مشق عوام کی آنکھوں میں دھول جھونکنے کے مترادف ہوگی۔ اس پوری کوشش کا مقصدمتعلقہ سیاسی جماعتوں کو یہ کھوکھلا دعویٰ کرنے کے لئےکہ انہوں نے اپنا انتخابی وعدہ پوراکردیا ہے بنیاد فراہم کرناہے۔
اسٹینڈنگ کمیٹی کا ردعمل رپورٹ کے پیرا5.9.2 میں شامل حکومت کا ردعمل اعتراضات کے اہم نکات کاحل نہیں پیش کررہاہے۔
سی وی پی بل 2005 کی دفعہ18 میں فوجداری قانون کی دفعہ144 کے تحت احکام کی خلاف ورزی کرنے پر سزا دینے کے اختیار دیاگیاہے۔۔ اس دفعہ میں ایک بار پھر سی وی پی بل 2005 کی دفعہ 5 کا ذکر نہیں کیاگیاہے۔ لہٰذا اگر کوئی شخص سی وی پی بل2005 کی دفعہ 5 کے تحت حکم کی مخالفت کرتاہے تو اِس دفعہ کے تحت اُس کے خلاف مقدمہ نہیں چلایاجاسکتا۔ اسٹینڈنگ کمیٹی کی رپورٹ اس مسئلے پر بالکل خاموش ہے۔
سی وی پی بل 2005 کی دفعہ 22 میں ریاستی حکومت کے ذریعہ ریویو کمیٹی تشکیل کرنے کی سہولت فراہم کی گئی ہے جس کی قیادت انسپکٹر جنرل آف پولس کی سطح کا افسر کرے گا۔ تاہم اس تعلق سے ایک ابہام ہے کہ ان لوگوں کی تعداد اور لیاقت کیا ہوگی جواس کمیٹی کی تشکیل کریں گے۔ ریویو کمیٹی کو کسی بھی ایسے معاملے میں تازہ تحقیقات کا حکم جاری کرنے کا اختیار حاصل ہے جس میں ایف آئی آر درج کرنےکی تاریخ سے لےکر اگلے تین ماہ کے اندر فرد جرم(چارج شیٹ) داخل نہیں کیاگیاہے۔اور یہ تحقیقات ڈپٹی سپرنٹنڈنٹ کے عہدےسے نیچے کا کوئی افسر نہیں کرے گا۔ ریویو کمیٹی کی قیادت ان افسران کو کرنی چاہئے جو قانونی تجربہ رکھتےہیں اوروہ پولس عملہ والا نہیں ہونا چاہئے۔
اسٹینڈنگ کمیٹی کی رپورٹ اس مسئلے پر بھی خاموش ہے۔
سی وی پی بل 2005 کی دفعہ 23 میں ریاستی حکومت کے ذریعہ خصوصی تحقیقاتی ٹیم(اسپیشل انویسٹی گیشن ٹیم)تشکیل کرنے اختیار دیاگیاہے۔ جب ریاستی حکومت اس بات سے مطمئن ہوجائے کہ فرقہ وارانہ طور پر شورش زدہ علاقے میں کئے گئے جرائم کی تحقیقات منصفانہ اور غیر جانبدارانہ انداز میں نہیں کی گئی ہے تو وہ خصوصی تحقیقاتی ٹیم کی تشکیل کرسکتی ہے۔ گجرات اور ممبئی کے فسادات سے یہ تجربہ ہواہے کہ بے شمار شواہد موجود ہونے کے باوجود کہ فساد سے متعلق معاملات کی تحقیقات نہ تو منصفانہ تھی اور نہ ہی غیرجانبدارانہ ریاستی حکومتوں نے آنکھیں موند لیں۔ برسراقتدار سیاسی جماعتیں اس طرح کے حالات میں اپنےسیاسی تأملات کو مدنظر رکھتے ہوئے کام کرتی ہیں۔ وہ سیاسی شرمندگی سے بچنے کے لئے یااپنے سیاسی حامیوں اور بہی خواہوں یا اپنے افسران مع سپاہیوں کو ڈھال فراہم کرنے کے لئے فساد سے متعلقہ معاملات کی منصفانہ اور غیرجانبدارانہ تحقیقات کرانے سے حتیٰ الامکان گریز کرتی ہیں۔ غیرجانبدارانہ،منصفانہ اور معروضی تحقیقاتی ٹیم کی تشکیل کے لئے سی وی پی بل 2005 میں کوئی شِق نہیں ہے۔
اسٹینڈنگ کمیٹی کا ردعمل اسٹینڈنگ کمیٹی کی رپورٹ میں اس مسئلے پر گفتگو نہیں کی گئی ہے۔
سی وی پی بل 2005 کے باب(چپیٹر) IX میں 49ویں تا52 ویں دفعات راحت اور بازآبادکاری کے لئے فنڈ پر مشتمل ہیں۔ بل کی شقوں کے مطابق راحت اور بازآبادکاری کونسلوں(ریلیف اینڈ ری ہیبی لیٹیشن کونسلس) کی تشکیل تنقیدکی گئی ہے۔ اس طرح کی کونسلوں کی اثرپذیری مشکوک ہے کیونکہ کونسل ان راکین پر مشتمل ہوگی جوحکومت کے نامزدکردہ ہوں گے۔یہ اندیشہ ظاہر کیاجاتا ہے کہ حکومت کے اس طرح کے نامزدکردہ اراکین فسادمتأثرین کی راحت اور بازآبادکاری کے لئے موثر اقدامات نہیں کرتے۔ مزید برآں یہ حکومت کی ذمہ داری ہے کہ وہ فساد متأثرین کو مناسب راحت اور بازآبادکاری فراہم کرے۔ ملک دشمن اور سماج دشمن عناصر کو جو فرقہ وارانہ تشدد پھیلاتے ہیں بہر صورت یہ احساس کرانے کی ضرورت ہے کہ بازآبادکاری اور راحت رسانی کی قیمت سماج کو برداشت کرنی ہے۔ یہ تجویز پیش کی جاتی ہے کہ راحت اور بازآبادکاری کے اس پورے معاملے کوایک الگ قانون میں شامل کیا جائے اور اِسے بالکل اُسی قانون کا حصہ نہیں بنایاجانا چاہئے۔
اسٹینڈنگ کمیٹی کا ردعمل اسٹینڈنگ کمیٹی کی رپورٹ میں سی وی پی بل 2005 کی 49ویں تا52ویں دفعات میں اٹھائے گئے اعتراضات پر کوئی تأثر نہیں ظاہرکیاگیاہے۔
سی وی پی بل 2005 کے باب X فساد متأثرین کو معاوضہ دینے سے متعلق ہے۔ دفعہ53 فسادمتأثرین کو معاوضہ فراہم کرانے کے بارے میں ہے۔ یہ ان کے لئے ایک وہمی/خیالی راحت ہے۔ اِس دفعہ کے اندر یہ بات واضح کردی گئی ہے کہ معاوضہ وہ شخص اداکرے گا اِس ایکٹ کے تحت قابل تعزیز جرم کا مرتکب پایاجاتاہے۔
پہلی بات تو یہ کہ ماضی کے فرقہ وارانہ فسادات کے تجربات ہمیں یہ بتاتے ہیں کہ بہت ہی کم افراد کو فرقہ وارانہ فسادات کے دوران کئے گئے جرائم کی سزا ملتی ہے۔ دوسری بات یہ کہ اس طرح کے جرائم میں معاشی درجہ بندی کے سب سے نچلے پائدان پر رہنے والے افراد کے خلاف کارروائی کی جاتی ہے اوراگر ان کے خلاف جرم ثابت ہوجاتاہے تو ان کے پاس فسادمتأثرین کو معاوضہ دینے کے وسائل نہیں ہوتے۔ اس پورے ایکٹ میں اصل خامی یہ ہے کہ اس میں ان افراد یا تنظیم کے پیچھے نہیں پڑاگیا ہے جو واقعتاً فساد کی سازش اور منصوبہ بندی کرتے ہیں۔ جسٹس سری کرشناکمیشن رپورٹ میں بال ٹھاکرے کو ملزم ٹھہرایاگیاتھا جس نے فسادکرانے میں ماہر جنرل کا کردار اداکیاتھا لیکن بال ٹھاکرے فرقہ وارانہ تشدد کے کسی بھی منظر میں موجودنہیں تھا اور فسادسے متعلق کسی بھی معاملے بشمول آتش زنی، جائداد واملاک کی تباہی،ڈاکہ زنی، جسمانی نقصان یا فساد متأثرین کی موت میں اسے ملزم نہیں ٹھہرایاگیا۔ جب تک ہم کوئی ایسا موثرقانون وضع نہیں کرتے جس کے تحت کسی بھی تنظیم کو،خواہ وہ سیاسی ہو،سماجی ہو یا کمیونٹی پر مبنی ہو یا بصورت دیگر، فرقہ وارانہ تشدد کے لئے قابل باز پرس اور جوابدہ نہیں بناتے اور انہیں فساد متأثرین کو معاوضہ دینے کے لئے قانونا ذمہ دار نہیں بنایاجاتا اور اس طرح فسادات کروانے کی اس ‘صنعت’ کو نقصان دہ صنعت میں تبدیل نہیں کیا جاتا فرقہ وارانہ فسادات کو دوبارہ رونماہونے سے روکنے کا مقصد حاصل نہیں کیا جاسکتا۔ بل میں اس طرح کی شِقیں نہیں ہیں۔
اسٹینڈنگ کمیٹی کا ردعمل اسٹینڈنگ کمیٹی کی رپورٹ میں مذکورہ بالا اعتراضات پر کچھ بھی خامہ فرسائی نہیں کی گئی ہے۔
فرقہ ورانہ تشدد کو روکنے کے لئے قانون کو موثر بنانے کے لئےمذکورہ بالا اعتراضات کے علاوہ کچھ مثبت تجاویز بھی پیش کی گئی تھیں لیکن ان تمام تجاویز کو نظراندازکردیاگیا اور ایساظاہرہوتا ہے کہ ان تجاویز کو اسٹینڈنگ کمیٹی کے سامنے بھی نہیں پیش کیا گیاہے۔ یہ تجاویز مندرجہ ذیل ہیں۔
(الف) فرقہ وارانہ فسادات کو1948 کے جینوسائڈکنونشن کی شِقوں کے مطابق جسے ہندوستان نے 1949 میں تسلیم کیاراجینوسائڈ کے برابر قرار دیاجائے۔
(ب) اس ضمن میں آئرلینڈ،جرمنی وغیرہ کے ذریعہ جینوسائڈ(نسل کشی) کے موضوع پر جو مسودہ اور قانون تیار کیا ہےاس کامطالعہ مفید ہوگا۔ کچھ ممالک نے جو قوانین وضع کئے ہیں وہ انٹرنیٹ پر دستیاب ہیں۔
(ج)یہ بالکل موزوں وقت ہے کہ کسی بھی پولس اسٹیشن کے ماتحت آنے والے علاقے میں فرقہ وارانہ تشدد کا وقوع ہی اپنے آپ میں معقول سبب ہونا چاہئے کہ res gestae loquiter کا اصول لاگو کیا جائے اور اس طرح کے افسران کے ذریعہ فرض سے کوتاہی معاملے کو فوجداری جرم کا معاملہ قراردیاجانا چاہئے اور اس کے لئے اس علاقے کے تمام اعلیٰ پولس افسران کے خلاف فوجداری معاملہ درج کیا جانا چاہئے۔مزید برآں پولس مینوأل (Manuals) یا پولس سروس کی شرائط میں یہ ترمیم کی جائے کہ کسی بھی پولس یا انتظامی افسران کے علاقے میں جن کی ڈیوٹی عوامی شانتی برقرار رکھنا اور عوامی بد نظمی کو ٹالنا ہے اس طرح کاکوئی بھی واقعہ رونما ہونے پر اُس واقعے کواُن کے خلاف تادیبی کارروائی کے لئے ،فوری معطلی اور انجام کار سروس سے برخواستگی کے لئے وجہ بنایا جائے گا۔ یہاں تک کہ محکمہ جاتی تادیبی کارروائیوں کے لئے بھی خاطی سرکاری افسران کے خلاف Res ipsa loquiter کے اصول کو لاگو کیا جاسکتاہے۔
(د) بل میں ترمیم ہونی چاہئے اور نچلے یا ماتحت افسران کے ذریعہ طاقت کے غلط استعمال کے معاملے میں نیابتی فوجداری جوابدہی کی شِق متعارف کی جانی چاہئے نیز اعلیٰ سطح کے انتظامی یا پولس افسران بشمول ان کے سیاسی آقاؤں کو، جو عوامی نظم و نسق/ شانتی اور سرکاری و نجی جائدا د واملاک کے تحفظ سے متعلق قلمدان وزارت کے انچارج ہیں ، گھیرنے کے لئے Command responsibility کے تصور کو قانونی شکل دی جائے۔ قصہ مختصر یہ کہ عوامی تشدد کو شروع ہونے سے روکنے یا دبانے کے لئے اپنے دائرہ اختیارات میں تمام ضروری اور معقول اقدامات کرنے میں پولس افسران،بیوروکریٹس یا وزیر کی ناکامی متعلقہ فرد کے خلاف قانونی کارروائی اور مثالی سزاکے لئےمعقول وجہ ہونی چاہئے ۔
(ذ) یہ تعیین کرنی ضروری ہے کہ سرکاری افسر، حکومت یاسرکاری مشینری کی طرف سے فرض سے کوتاہی برتنا کیا ہے؟ فرض سے کوتاہی برتنے کا تصور بالکل واضح طور پر مجوزہ بل میں مذکور ہونا چاہئے۔
(س) فرقہ وارانہ فسادات کو روکنے،قابو پانے کے معاملات میں سرکاری افسران یا سرکاری مشینری کی طرف سے فرض کی ادائیگی میں کوتاہی کے معاملات کی جانچ کے لئے ایک آزاد اور غیرجانبدار انکوائری کمیشن اوراسٹیٹ سکیورٹی مع ایڈمنسٹریشن کمیشن کا قیام عمل میں آنا چاہئے۔ اور اس طرح کی انکوائری کمیشن کو یہ معقول طاقت حاصل ہونی چاہئے کہ وہ حکومت یا حکومتی مشینری/ سرکاری افسران کے خلاف فرض کی ادائیگی میں کوتاہی کی شکایات کی تحقیقات کرسکے اور حکومت کو چاہئے کہ وہ اس طرح کی کمیشن کے لئے تحقیقاتی ایجنسیاں فراہم کرے۔
(ص) فساد متاثرین کو معاوضہ دینے کے لئےمجوزہ بل میں حکومت کی ذمہ داری کاتصور بھی مدغم کیاجانا چاہئے۔ یہ صرف قصورواروں کے اوپر نہیں چھوڑا جانا چاہئے کہ وہ فساد متأثرین کو معاوضہ دیں۔ کسی بھی فرقہ وارانہ تشدد کے شکار فساد متأثرین کو معاوضہ دینے کی ذمہ داریوں کو متعدد غیر ملکی عدالتوں مثلانیوزی لینڈمیں1964،برطانیہ میں 1964، اور بعد ازاں،کناڈا، شمالی آئرلینڈ، ریاستہائے متحدہ امریکہ اور آسٹریلیا میں بھی تسلیم کیا گیا ہے اور اور فسادمتأثرین کو معاوضہ دینے کے لئے قوانین بنائے گئے ہیں۔ امریکن جورس پروڈنس(امریکی علم قانون) کے 11 ویں ایڈیشن،جلد نمبر54 سے مندرجہ ذیل اقتباس منقول ہے-:
‘‘ کئی عدالتی اختیارات میں قانون مسطور کے ذریعہ میونسپل کارپوریشنوں کو اُس نقصان کے لئے جو کسی شخص یا جائداد کوپرتشددہجوم کے فعل سے پہونچتاہےقانوناً ذمہ دار قرار دیا جاتا ۔ یہ قوانین اُس سرکاری ڈیوٹی کے اعتراف میں تشکیل کئے گئے ہیں جو حکومت نے امن اور نظم کو برقرار رکھنے اور جان واملاک کے تحفظ کے لئے میونسپلٹی کو اور دیگر ڈویژن کو تفویض کی ہے ’’۔
نیشنل پولس کمیشن کی چھٹویں رپورٹ(1981) میں بھی یہی مشاہدہ کیاگیاہے ‘‘ یہ انتظامیہ کا فرض ہے کہ وہ ان بدقسمت(فرقہ وارانہ فسادکےمتأثرین) افراد کے نقصانات کی تلافی کرے اور بازآبادکاری میں ان کی مدد کرے’’۔
(ض) قومی انسانی حقوق کمیشن کی طرف سے حکومت کو پیش کی گئی اپنی مختلف رپورٹوں میں مذکور تجاویزوسفارشات کو نافذ کرنے کے لئے اس موقع کا فائدہ اٹھانا چاہئے۔

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Mumbai: The concerned department responsible for designing the Census 2011 form might face the heat because of the mistake – deliberately or otherwise – of not including the column for religion and mother tongue in the important document.

Stating that there might be some conspiracy involved behind the motive, Deputy Chairman of Maharashtra State Minority Commission and President of Christian Voice Abraham Mathai has requested the Prime Minister Dr. Manmohan Singh to look into the matter.

“Not including the column of religion in the Census 2011 form means that we will not have details of the population on the basis of religions. This will be a sever blow to the minorities as in the absence of such data, various government schemes which are made for minorities would be no longer available for them”, Abraham Mathai says in his letter to the prime minister.

“I am unable to understand whether this is an unintentional mistake or a deliberate attempt by the bureaucracy?”, Abraham Mathai says in his letter to the Prime Minister.

Urging the Prime Minister to take measures for immediate correction, Abraham Mathai says, “Not having the separate column to identify one’s religion in the census form would mean that we are denying their existence in the country. Hence I request you to take measures so that the mistake is corrected and separate column for religion is included in the Census 2011 form.”

India, one the world’s largest countries in terms of population, has Census every ten years. The Census 2011 will be India’s 15th census since 1872. It will cost the government Rs.2,209 crore and witness engagement of 2.5 million people.

The census 2011 will mark a milestone as the government also intends to create the National Population Register (NPR), a comprehensive identity database that will facilitate the creation of a biometrics-based identity system in the country, allowing identity cards for all citizens. Also, for the first time information will be collected on categories like the ownership of mobile phones, computers, internet, having treated or untreated drinking water facility, and finger prints and photographs of individuals which will help the government formulate plans and strengthen the country’s security.The first phase, called the house listing and housing census, will be conducted between April and July this year. The second phase, called the population enumeration, will be conducted simultaneously all over the country Feb 9-28, 2011.Spread across 35 states and union territories, the census would cover 640 districts, 5,767 tehsils, 7,742 towns and more than 600,000 villages.

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